
बसपा पुराने फार्मूले के सहारे नये चुनाव जीतने की आस में है। वह निकाय चुनाव में अपनी सोशल इंजीनियरिंग का भरपूर प्रयोग कर लोकसभा चुनाव की राह आसान करना चाहती है। इसी फार्मूले को हिट करने के लिए वह फिर दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर फोकस कर रही है।
दरअसल, थिंक टैंक का मानना है कि किसी भी तरह से मुस्लिमों को पार्टी में पुन: लाया जाए। दलित-मुस्लिम समीकरण बनेगा तो पार्टी मजबूत होगी। क्षेत्रीय वर्चस्व वाली जातियों को टिकट दिया जाए। इसी सोशल इंजीनियरिंग के सहारे पार्टी प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी है।
पिछले निकाय चुनाव में भी इसी समीकरण के सहारे मेरठ में सुनीता वर्मा ने महापौर पद भाजपा से छीन लिया था। वहीं, दलित-मुस्लिम समीकरण बनने से अलीगढ़ में बसपा के फुरकान विजयी रहे। अन्य दो सीटों पर पार्टी दूसरे स्थान पर रही थी।
महापुरुषों की चिंता
पार्टी को यह भी चिंता है कि दूसरे दल उन महापुरुषों की जयंती मना रहे हैं जिन पर बसपा अपना दावा करती रही है। जैसे सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की ओर से रायबरेली में पार्टी संस्थापक कांशीराम की प्रतिमा की स्थापना में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव शामिल हुए।
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