December 12, 2024

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कभी हिट रहा बीएमडी का फार्मूला, अब करवट बदल रहा वक्त, एक रिपोर्ट

रायबरेली का रण हमेशा से दिलचस्प रहा है। यहां किसी भी चुनाव में त्रिकोणीय और चतुष्कोणीय मुकाबला नहीं हुआ। मतदाताओं में इसकी चर्चा भी नहीं रही और न ही इसकी चिंता ही दिखी। यहां हर बार जो लड़ा सो बस कांग्रेस से ही। पंजे की पहुंच ऐसी रही कि हर लहर यहां आकर थम सी गई। ऐसे में बड़ा सवाल, आखिर रायबरेली में ऐसा क्या है कि मुकाबला दो के बीच ही आकर थम जाता है। इसकी वजह है वोटबैंक पर पकड़ के साथ चुनाव मैदान में चली जाने वाली सधी चाल।

इस रणनीति का श्रेय इंदिरा गांधी को जाता है। वह जब 1967 में पहली बार चुनाव मैदान में उतरीं तो यहां की नब्ज टटोलनी शुरू की। अपने राजनीतिक गढ़ को अभेद्य बनाने के लिए कुशल रणनीतिकार की तरह उन्होंने बीएमडी (ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित) वोटबैंक के फार्मूले का उपयोग किया और बड़े अंतर से जीत भी दर्ज की। रायबरेली के रण में बीएमडी का फार्मूला हिट रहा। लेकिन अब रायबरेली का यह मजबूत किला दरकता दिख रहा है।

 

मुलायम की रणनीति : खिसकनी शुरू हुई कांग्रेस की मजबूत जमीन

– मुलायम सिंह यादव के फार्मूले से रायबरेली में सपा की यादव, अन्य पिछड़ा, मुस्लिम और क्षत्रिय वोटबैंक पर पकड़ बननी शुरू हुई। इसका असर 1991 के लोकसभा चुनाव में दिखा। जनता दल खत्म हो चुकी थी और सपा का उदय हुआ था। सपा ने इस बार चुनाव में ठाकुर प्रत्याशी के रूप में अशोक कुमार सिंह पर दांव लगाया। वहीं, कांग्रेस ने बिना किसी लाग लपेट के शीला कौल को मैदान में उतारा। नतीजा मुकाबला कांटे का रहा और शीला कौल महज 3917 मतों से जीत सकीं, वहीं हार के बाद भी सपा ने कांग्रेस के बीएमडी फार्मूले को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह चुनाव उस समय हुआ था जब राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी और राम मंदिर आंदोलन चरम पर था।

कांग्रेस : जातियों को साध जीत का बनाती रही रिकॉर्ड 

– जातीय समीकरण को देखें तो रायबरेली में अनुसूचित जाति का वोट बैंक सबसे अधिक है। करीब 34 फीसदी वोट के साथ यह वर्ग जीत में अहम भूमिका निभाता है। दूसरे नंबर पर अन्य पिछड़ा वर्ग है। प्रत्याशी के भाग्य का फैसला करने में 23 फीसदी भूमिका इनकी रहती है। इसके बाद ब्राह्मण हैं, जो 11 फीसदी के साथ जीत को अंतिम टच देते हैं। वहीं समीकरणों को उलटने में छह फीसदी मुस्लिम भी अहम भूमिका निभाते हैं।

– कांग्रेस के रणनीतिकारों ने 1967 में इस सीट के लिए होमवर्क किया तो जातीय समीकरणों का गुणा-भाग समझ आया। इसके बाद इंदिरा गांधी ने ऐसा फार्मूला तैयार किया जो कांग्रेस के लिए रायबरेली ही नहीं बल्कि समूचा हिंदी बेल्ट भी जीतने का अमोघ अस्त्र बन गया।

– 1989 में मुलायम सिंह यादव ने पिछड़ों और मुस्लिमों को साथ लेकर चलने का फैसला किया। यही कारण रहा कि 1989 के लोकसभा चुनाव में जनता दल से चुनाव लड़े राजेंद्र प्रताप सिंह को 1,13,879 मत मिले और कांग्रेस की शीला कौल को 1,97,658 मत।

1999 : परंपरागत वोट बैंक कांग्रेस की तरफ लौटा 

– वर्ष 1999 के चुनाव में भी सपा ने गजेंद्र सिंह को मैदान में उतारा और कांग्रेस से कैप्टन सतीश शर्मा ने मोर्चा संभाला। प्रचार की बागडोर प्रियंका गांधी ने अपने हाथ में ली तो करीब 10 साल बाद परंपरागत वोटबैंक को कांग्रेस की तरफ लौटा दिया। हालांकि चुनाव में कैप्टन की जीत 73,549 मतों से हुई। भाजपा प्रत्याशी की जमानत जब्त हो गई। असल में कैप्टन इंदिरा गांधी के साथ भी काम कर चुके थे तो उनको रायबरेली के जातीय समीकरणों की अच्छी समझ थी। यही कारण प्रियंका गांधी का चुनाव प्रचार बछरावां, हरचंदपुर, सतांव, रायबरेली और लालगंज में केंद्रित रहा।

भाजपा : कड़ी टक्कर देकर कांग्रेस को चिंता में डाला 

– 2004 में सोनिया गांधी जब चुनाव मैदान में उतरीं तो सपा ने फिर दूसरा स्थान हासिल किया। सोनिया को 2,49,765 मतों से जीत मिली। इसके बाद 2009, 2014 और 2019 के चुनाव में सपा ने कांग्रेस को वॉकओवर दिया और फिर कांग्रेस जीत हासिल करती रही, लेकिन 2019 के चुनाव में भाजपा ने जिस तरह टक्कर दी उसने कांग्रेस के रणनीतिकारों को चिंतित कर दिया। अब बसपा भी मशक्कत कर रही है। भाजपा जीत के लिए वोट बैंकको फिट करने में जुटी है।